क्या अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है ?

क्या अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है ?


अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है यह कहावत हम लोग बचपन से सुनते आये हैं| वैसे तो इस कहावत से आशय है की अकेला आदमी बहुत बड़ा काम स्वयं से नहीं कर सकता| बड़े काम के लिए उसको और भी लोगों से सहयोग लेना ही पड़ता है| लेकिन क्या सच में अकेला आदमी बड़े काम नहीं कर सकता ? मतलब क्या सचमुच अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता? क्या आपने सचमुच किसी चने को भाड़ फोड़ते नहीं देखा ?
                       

अगर देखा जाय तो इस मुहावरे के आशय कुछ भी हों लेकिन इस मुहावरे ने मनुष्य की प्रकृति प्रदत्त शक्तियों को बांधने का काम जरूर किया है| हम वैसे भी खुद से अपने आप को नहीं देख पाते | हममें से अधिकांश लोग अपने अंदर छिपे हुई असली शक्ति को नहीं भांप पाते और आंख बंद करके ऐसी कहावतों पर विश्वास कर लेते हैं | वैसे अगर देखा जाय तो एक आदमी की शक्ति और बहुत से आदमियों की शक्ति में सिर्फ संख्या का ही फर्क है ऐसे में "कार्य और समय" का गणित लगाएं तो एक आदमी भी वह सारे कार्य कर सकता है जो कई लोग मिलकर करते हैं यह बात अलग है कि समय थोड़ा ज्यादा लगेगा | खैर यह एक अलग विषय है की समय किस अनुपात में लगेगा| आइये हम अपने मूल विषय पर आते हैं की कि क्या आपने किसी अकेले चने को भाड़ फोड़ते देखा है ? जी हां ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिससे हम सिद्ध कर सकते हैं की अकेले चने ने भाड़ फोड़ा है| आइये  आपको ऐसे ही एक चने की कहानी के बारे में बताते है जिसने बहुत बड़े भाड़ को फोड़ दिया |

आज के हिमांचल प्रदेश के के लाउल कसबे में जो कि कुल्लू मनाली के उत्तर में पड़ता है, ठाकुर अमरचंद के घर में  १ जनवरी १९११ को एक बालक का जन्म हुआ | ठाकुर अमरचंद खुद भी भारतीय सेना की तरफ से विश्वयुद्ध १ में अंग्रेजो के तरफ से आज के इराक में लड़ चुके थे और उन्हें राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था | युद्ध में वीरता का असर अपने खून में लिए जब यह बालक अपने अपनी किशोरावस्था में था तभी इनके कुल पुरोहित इनके घर पधारे | इनके पुरोहित एक बौद्ध भिक्षु थे| पुरोहित अपनी वृद्धावस्था में थे | जाने से पहले उन्होंने इस बालक से एक बचन लिया कि जब कभी उनके आश्रम को खतरा होगा तो वह उसकी रक्षा करेगा | जिसके लिए यह बालक सहर्ष तैयार हो गया |  

कालान्तर में समय बीतता गया और द्वितीय विश्व युद्ध के समय यह बालक बड़ा होकर मेजर पृथ्वी चंद के नाम से सेना में एक अधिकारी बन गया| १९४७ में भारत अंग्रेजी शाशन से आज़ाद हो गया लेकिन साथ में देश दो टुकड़ो भारत और पाकिस्तान में बंट गया | महाराजा हरिसिंह के पास भारत या पाकिस्तान किसी में भी शामिल होने का विकल्प था | उनकी दुविधा को देखते हुए पाकिस्तान ने अक्टूबर १९४७ में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया तब राजा ने भारतीय सेना से सहायता की याचना की | स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारतीय सेना की टुकड़ियों ने कश्मीर के लिए उड़ान भरी|

दिसंबर १९४७ में मेजर पृथ्वी चंद की बटालियन कश्मीर घाटी में पहुँच गयी| उसी समय हिमालय क्षेत्र में बर्फ़बारी की वजह से लद्दाख जाने का ज़ोजिला पास का रास्ता बंद हो गया| एक तरह से कहें तो लद्दाख बाकी देश से कट गया | उसी समय पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी सिंधु नदी की तरफ से लद्दाख की राजधानी लेह की तरफ आगे बढ़ रही थी | भौगोलिक दृष्टिकोड से लद्दाख की उपयोगिता बहुत अधिक है क्यूकी इसकी सीमाएं तिब्बत, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और तत्कालीन सोवियत यूनियन के बदख़्शान क्षेत्र से मिलती थी|  हालाँकि उनके बढ़ने की रफ़्तार कठिन भौगोलिक परिस्थितियों और जम्मू कश्मीर राज्य के कुछ सुरक्षा बलों के विरोध की वजह से कम थी | लद्दाख की कश्मीर में रहने वाली जनता  संभावित खतरे से बहुत चिंतित थी| उसे किसी भी समय लद्दाख खो देने का भय सता रहा था| रेडियो पर खबरें आने लगी की लद्दाख की जनता का अपने सामान और परिवार के साथ तिब्बत जो कि उस समय एक स्वतंत्र देश हुआ करता था, की तरफ जाना शुरू हो गया| मेजर पृथ्वी चंद के एक सिविल इंजीनियर सहपाठी से उनको यह सुचना लगातार मिल रही थी|

एक रात पृथ्वी चंद के गुरु उनके सपने में आये और उनसे अपना बचन पूरा करने की बात कही| उनकी नींद खुल गयी| कौन बचन ? स्वाभाविक तौर पर वह सब बातें भूल चुके थे | फिर धीरे धीरे सब बातें याद आ गयी|

पृथ्वी उठ खड़े हुए, अपनी सेना की वर्दी पहनी और अपने ऑफिस को रवाना हो गए| अब उनका लद्दाख और अपने गुरु के आश्रम की रक्षा का उद्देश्य अपनी जान से भी प्यारा लगने लगा | जब उन्होंने लद्दाख की रक्षा पर बात की तो उनके सीनियर कमांडर्स को लगा की पृथ्वी का दिमाग ख़राब हो गया क्योकि लद्दाख जाने का रास्ता बंद था| इतने सैनिक भी नहीं थे जिनको कश्मीर घाटी से हटा कर लद्दाख में लगाया जा सके|

इस परिस्थिति में भी पृथ्वी हतोत्साहित नहीं हुए| वे सेना और राजनैतिक हर जगह अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करने लगे | यहाँ तक की उन्होंने लद्दाखी समाज के लोगों की तरफ से भारत के प्रधान मंत्री की भी टेलीग्राम भेजा| अंततोगत्वा सेना के अधिकारियों ने भारी मन से पृथ्वी की योजना को मंजूरी दे दी| योजना के मुताबिक पृथ्वी के साथ उनकी बटालियन के १३ सैनिक जो स्वेच्छा से उनके साथ जाना चाहें, और उनका सिविल इंजीनियर मित्र, २०० राइफल्स के साथ बर्फीले हिमलाय को पार करेंगे| लद्दाख पहुंचने के बाद स्थानीय युवकों को गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग देंगे| इस तरह वे पाकिस्तानी सेना के लेह की तरफ बढ़ रहे दस्ते को उलझा के रखेंगे| साथ में सिविल इंजीनियर लेह में एक हवाई पट्टी का निर्माण करेगा जहां पर हवाई जहाज से सहायता पहुंचाई जा सके|  सेना के कुछ अधिकारियों की निगाह में पृथ्वी नासूर बन चुके थे और उनको पृथ्वी की योजना के कारगर होने की कोई सम्भावना नहीं लग रही थी|

पृथ्वी के शौर्य और पराक्रम की कहानी भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी| उसके लिए पूरी एक किताब लिखने की जरुरत पड़ेगी| संछेप में, उन्होंने हाड कंपा देने वाली शर्दी में बर्फीले रास्ते से हिमालय की दुर्गम चोटियों को पार करते हुए, एक बर्फीले तूफान से बचते बचाते लद्दाख पहुंचे | पाकिस्तानी सेना जो कि बाल्टिस्तान और कारगिल को कब्ज़ा करने के बाद सिंधु और नुब्रा घाटी की तरफ से लेह के करीब पहुंच चुकी थी, पाकिस्तानी सेना जो कि बाल्टिस्तान और कारगिल को कब्ज़ा करने के बाद सिंधु और नुब्रा घाटी की तरफ से लेह के करीब पहुंच चुकी थी के साथ जमकर मुकाबला किया|  स्थानीय निवासियों  के साथ पाकिस्तानी सेना को पूरे दो महीने तक रोक के रखा और इसी बीच हवाई पट्टी भी बनकर तैयार हो गयी | यह गुरिल्ला युद्ध नौजवान पृथ्वी के नेतृत्व में करीब सैकड़ो मील में चल रहा था और पृथ्वी हर जगह मौजूद रहते थे कभी सिंधु तो कभी नुब्रा घाटी में| और इस तरीके से उन्होंने सेना के अधिकारियों को हवाई मार्ग से सहायता पहुंचाने के लिए तैयार किया| जिसका परिणाम है की लद्दाख पाकिस्तान के हाथ जाने से बच गया| उनके इस अदम्य साहस, मातृभूमि और अपने गुरु को दिए बचन के पालन के लिए उनको महावीर चक्र से सम्मानित किया गया|

उपरोक्त कहानी में आपने देखा किस तरह से निःस्वार्थ प्रेम और गुरु ज्ञान के प्रति समर्पण से पृथ्वी चंद एक असंभव लक्ष्य को भी संभव बनाने में कामयाब हुए| यह एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है जो यह सिद्ध करता है की मनुष्य रुपी चने को अगर सच्चे गुरु से पोषण मिले तो उसके अंदर भी वह शक्ति आ जाती है जिससे वह बड़े से बड़े लक्ष्य को पाने में संभव हो जाता है| इस लिए यह कभी न सोचें की आप  कोई काम नहीं कर सकते | आपकी संभावनाएं अपार हैं|

योग्य गुरु के पास भूत काल का अनुभव, वर्तमान का ज्ञान और भविष्य की कार्य योजना होती है| इस लिए वे अपने शिष्यों को हर संभावित परिस्थिति के लिए तैयार रखते हैं| हमारे माँ बाप, अध्यापक, पुरोहित, हमारे ऑफिस के सीनियर्स भी गुरु की तरह ही होते हैं जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं| जिस तरह से किसी समय एक किशोर बालक पृथ्वी एक शिष्य था लेकिन बाद में वही कितने लोगों का आदर्श गुरु बना| यह गुरु शिष्य परंपरा क्यू ही अनवरत चलती रहनी चाहिए|  आपका दिन शुभ हो |

(पद्मभूषण गुरु भाई लेफ्टिनेंट जनरल डॉ एम् एल छिब्बर की पुस्तक-“Sai Baba’s Mahavakya on Leadership” से साभार उद्धृत

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